लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
लज्जा और अन्यान्य
(1)
साल के अंत में, 'जाय-जाय दिन' के अंक में, समूचे साल, बंगलादेश से भारत को कौन-कौन सा सामान आयात-निर्यात किया गया, इसका एक हिसाब-किताब प्रकाशित हुआ है। उसमें यह भी छपा है कि तसलीमा की 'लज्जा' भारत को गैर-कानूनी तरीके से भेजी जा रही है। यह बात पूरी तरह झूठ है। 'लज्जा' इस देश से कभी भी गैरकानूनी तरीके से नहीं गई। इस देश की सरकार द्वारा जब्त किए जाने से पहले, यह किताब भारत को निर्यात की गई थी और पूरी तरह कानूनी तरीके से। 'लज्जा' जब इस देश में ज़ब्त कर दी गई और इस किताब का निर्यात रुक गया, तब कुछेक बेईमान धंधेबाज़ों ने यह किताब भारत में गैरकानूनी तरीके से छापना शुरू कर दिया और वह किताब मैदान-हाट-घाट में बेभाव बिकती भी रही। हाँ, बाद में जब आनंद पब्लिशर्स को कानूनी तरीके से यह किताब छापने की अनुमति मिल गई, उन्होंने बहुत सारे नकली कारोबारियों को नकली किताब छापने के जुर्म में जेल के भी हवाले किया।
सरकार इस किताब पर कम क्षुब्ध नहीं थी। लेकिन मैंने भयंकर अचरज से सुना कि वह किताब अभी भी दुकानों, विज्ञान मेलों, रास्ता-घाट, अखबार के स्टॉल, फूल की दुकानों में धड़ल्ले से बिकती रही। जिल्दहीन प्रतियाँ, अस्सी टका; ज़िल्द समेत प्रतियाँ सौ टका। किताब पर पाबन्दी लगाकर सरकार को क्या फायदा हुआ, पता नहीं, हाँ, पाठकों को साठ टकों का नुकसान ज़रूर हुआ! जो किताब पाठकों को चालीस टके में मिलती, अब उन्हें साठ टके ज़्यादा चुकाकर किताब खरीदना पड़ रही है।
बहुत से लोगों का कहना है कि भारत में बीजेपी ने यह किताब छापी है। यह सच है कि बीजेपी ने इस किताब के कुछेक अंशों का अनुवाद छापा है, लेकिन पूरी किताब छापने का न तो उनमें साहस है, न स्पर्धा, क्योंकि उस किताब में बीजेपी के खिलाफ भी काफी बातें हैं! पूरी किताब बहुत-से लोगों ने छापी है। वे लोग बीजेपी के घोर विरोधी हैं। वे लोग आपादमस्तक सेकुलर हैं। जिन लोगों ने यह किताब या भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनुवाद छापा है या इस किताब पर जिन लोगों ने यात्रा, नाटक, फिल्म बनाई है, वे सबके सब हिंदू हैं-यह बात सच नहीं है। अब्दुल रशीद, कमालउद्दीन नामक लोग भी इसमें जुड़े हैं। असल में यहाँ किसी असाम्प्रदायिक किताब को साम्प्रदायिक बनाने की जो कोशिश जारी है, वह हास्यास्पद भी है और विरक्ति भरी भी। यह बात भारत के असांप्रदायिक लेखकों को संख्यालघु मुसलमानों के पक्ष में और-और 'लज्जा' लिखने को प्रेरित कर रही है। इसी दौरान देवेश राय ने मुसलमानों के पक्ष में एक उपन्यास लिख भी डाला है। यह सब क्या यहाँ के मुसलमानों की नज़र में नहीं पड़ा? या नजर पड़ी भी हो तो सच को छिपाने का तकाजा इस कदर ज़्यादा है कि इस मामले में वे लोग जुबान तक नहीं खोलना चाहते। मुझसे बहुतों ने कहा है कि लज्जा लिखकर, मैंने जितना भला हिंदुओं का किया है उससे कहीं ज़्यादा मुसलमानों का किया है। मुसलमान कितने मानवीय और असांप्रदायिक हो सकते हैं, 'लज्जा' इसकी मिसाल बन गई है। संख्या गरिष्ठ होकर भी संख्यालघु के पक्ष में लिखा है, ऐसी उदारता अन्य किसी संप्रदाय में नज़र नहीं आती। मुसलमान इसे अपने सुयोग-सुविधा मुताबिक काम में लगा सकते हैं। दो-चार लोगों ने यह भी कहा है कि 'लज्जा' लिखकर मैंने बंगलादेश के हिंदुओं का कुछ-कुछ बुरा भी किया है। उन लोगों के मन में जो तीखी आग धधक रही थी, उसे मैंने बुझा दिया है। जो क्षोभ उनके सीने में जमा था, जिस क्षोभ की वजह से वे लोग भयंकर कुछ कर गुज़रते, उसे मैंने कम कर दिया है। वे लोग अब सोच सकते हैं कि उन लोगों के पक्ष में लड़नेवाले लोग मौजूद हैं। वे लोग अकेले नहीं हैं। दुर्बल की बगल में अगर कोई सबल आ खड़ा हो, तो दुर्बल सहम जाता है। जो आग वे लोग लगाना चाहते हैं, वह नहीं लगाते। उदारता की यह बहुत बड़ी सफलता है!
(2)
'जाय-जाय दिन' बंगलादेश से भारत को निर्यात होनेवाले सामानों की सूची गिनाते हुए, एक उल्लेखनीय निर्यात के बारे में चूक गया। वह हैं-किताबें! बंगलादेश से कभी कोई किताब, इतनी बड़ी संख्या में भारत को निर्यात नहीं की गई, जिस तरह से तसलीमा नसरीन की किताब निर्यात की गई है। इससे किताब के प्रकाशक, निर्यातक, सभी को फायदा हो रहा है, यह देश विदेशी मुद्रा अर्जित कर रहा है। यह क्या देश के लिए बहुत बड़ी सफलता नहीं है? इसके अलावा तसलीमा की किताब भारत में जनप्रिय होने से, बंगलादेश के लेखकों के प्रति, भारतीय पाठकों के मन में जो अनास्था थी, वह दूर हो गई है और उन लोगों ने पहली बार यहाँ के लेखकों की किताब में दिलचस्पी दिखाई है। इस तरह धीरे-धीरे अन्यान्य लेखकों की किताबें भी भारत जाने लगेंगी। इसी दौरान दो-एक लेखक भारत में किताबों का बाज़ार पाने के लिए अस्थिर हो उठे हैं। तसलीमा की किताब के साथ-साथ, उनकी भी किताबें निर्यात करने के लिए, वे निर्यातकों से तकादे करने लगे हैं। मुझे उम्मीद है कि इसी तरह धीर-धीरे अन्यान्य लेखकों के भी पाठक वन जाएँगे। वहाँ इन दिनों पाठकों में किताबों की जितनी माँग है, अकेली तसलीमा के लिए उतनी किताबें लिखना कतई संभव नहीं है। इससे थोड़ा-बहुत तसलीमा का भला ज़रूर होगा, लेखकों के ईर्ष्या-वाण से उसे इतना अधिक छलनी नहीं होना पड़ेगा।
(3)
आजकल शुक्रवार के दिन ढाका की मस्जिदों में नमाजियों की भीड़ उमड़ आती है। चींटियों की कतार की तरह इंसान, सड़क तक उतर आते हैं! नतीजा यह होता है कि रास्ता बंद करके, नमाज़ पढ़ना पड़ता है। आजकल रास्ता बंद करके राजनीतिक सभा या इस्लामी जलसे करने का लगभग नियम-सा बन गया है। इससे आम जनता को कितना दुर्भोग झेलना पड़ता है, वह आम जनता ही जानती है। असाधारण राजनीतिज्ञ और इस्लाम प्रचारकों के जानने की बात भी नहीं है! मेरी राय में आम सड़कें बंद न करके किसी खुले मैदान में सभाएँ आयोजित करनी चाहिए। लोग जिस ज़रूरी काम के लिए निकलते हैं, ज़रूरी काम में फँसकर, उनका काम बिगड़ जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि रास्ता बंद करनेवालों पर गालियों की बरसात के अलावा और कोई नहीं बचता। अगर मीटिंग-सभाओं का आयोजन लोगों की भलाई के लिए किया जाता है, तब लोगों के काम का नुकसान करने का हक क्या उन लोगों को होता है? जो रोगी समय से अस्पताल नहीं पहुंच पाते और रास्ते पर ही दम तोड़ देते हैं उनकी मौत की जिम्मेदारी क्या वे लोग लेंगे?
वर्तमान विज्ञान के युग में इंसान जब मस्जिदों में उमड़ा पड़ता है, हमारी कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य ही आजकल जब मस्जिदों में जाने लगे हैं, तब 'मस्जिद तोड़ डालो' का नारा लगाने से हमारा सिर ही कलम कर दिया जाएगा, मस्जिद कोई नहीं तोड़ेगा। ऐसी हालत में आम जनता की तरफ से मैं कहती हूँ कि मस्जिदों को चौड़ाई में न बढ़ाकर, इनकी ऊँचाई बढ़ा दी जाए। यानी मस्जिद चाहे दो-मंजिली, तिमंजिली या चौमंज़िली भले कर लो, मगर सड़कें मत बंद करो क्योंकि जिन्हें अलौकिक से ज़्यादा लौकिक की ज़रूरत ही अधिक है, जिन्हें मेहनत-मशक्कत करके आहार जुटाना होता है, रास्ता-घाट बंद कर देने से, उनकी कमाई के रास्ते भी बंद हो जाते हैं। वैसे मेरा एक और भी प्रस्ताव है कि हर महल्ले में एक से अधिक मस्जिदें तो मौजूद हैं. अव और नहीं। इसकी जगह खेल का मैदान. एकाध लाइब्रेरी। एकाध विज्ञान क्लब या स्कूल बनाने की गुंजाइश रखें। मस्जिद में अगर जगह संकुल हो, तो उसकी मंजिलें बढ़ा दें। लेकिन खेल के मैदान, स्कूल, लाइब्रेरी और विज्ञान-क्लब की गुंजाइश ज़रूर रखें। इससे समाज में अमंगल होने के बजाय ज़रूर मंगल होगा।
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- आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
- मर्द का लीला-खेल
- सेवक की अपूर्व सेवा
- मुनीर, खूकू और अन्यान्य
- केबिन क्रू के बारे में
- तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
- उत्तराधिकार-1
- उत्तराधिकार-2
- अधिकार-अनधिकार
- औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
- मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
- औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
- बलात्कार की सजा उम्र-कैद
- जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
- औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
- कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
- यह देश गुलाम आयम का देश है
- धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
- औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
- सतीत्व पर पहरा
- मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
- अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
- एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
- फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
- फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
- कंजेनिटल एनोमॅली
- समालोचना के आमने-सामने
- लज्जा और अन्यान्य
- अवज्ञा
- थोड़ा-बहुत
- मेरी दुखियारी वर्णमाला
- मनी, मिसाइल, मीडिया
- मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
- संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
- कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
- सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
- मिचलाहट
- मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
- यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
- मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
- पश्चिम का प्रेम
- पूर्व का प्रेम
- पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
- और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
- जिसका खो गया सारा घर-द्वार